एक शाम गुज़रती नहीं थमती भी नहीं इशारा करते करते फुरसत से आहें भरके चुनिन्दा ख्यालों को इन मायूस आँखों से आज़माती हुई चली ये अपने ही धुन में न जाने कहाँ प्यार से बड़े आराम से एक अधूरी दास्ताँ अपने सांथ लिये होले से कहते हुए . . . हम फिर मिलेंगे ए वक्त के मुसाफिर