Monday, January 30, 2012

Waqt ke Musafir

वक़्त के मुसाफिर 
एक दूजे से अंजान 
बस एक ही मुस्कान 
फिर क्या 
थोड़ी सी गुफ्तगू 
थोड़ी सी हँसी 
चाँद ख्वाहिशें 
थोड़ी सी आरज़ू 

भूल कर सारी दुनिया कहाँ खो गये 
कुछ ही लम्हों में सच्चे यार हो गये 
एक दूजे से अंजान थे जो पहले 
इस छोटे से सफ़र में सांझेदार हो गये 

क्यूँ लगता है मुझे अपनी कहानी मिलती है 
जैसे रास्ते हो अलग लेकिन मंज़िल एक ही है 
क्या आईना है तू मेरी दास्तान का? 
या है तुझसे मेरा कोई वास्ता सा? 
शायद खुदा ने भेजा था तुझे 
मेरी तक़दीर बनाकर 
जिसमें पढ़ सकता अपनी कहानी 
ऐसी तस्वीर बनाकर 

मूक़दर ने जिन्हे मिलवाया 
और वक़्त ने संत निभाया 
हमें मिलना ही था 
ए वक़्त के मुसाफिर 
वरना यूँ ना मिलते हम 
जिन्हे कभी ना मिलना था 

जल्द ही आएगी मंज़िल तेरी 
मुझे तो अभी दूर जाना है 
ज़िंदगी की अंजान राहों पर चलते जाना है 

और कैसे भुला दूं में, 
तू फारिसता है तो क्या 
पास नही तू मेरे 
सांत नही तू मेरे 

ज़िंदगी के इस सफ़र में 
में अकेला हूँ और अकेला था 
पर सोचता हूँ आज भी कभी, 
हम मिले ही क्यूँ 
फिर अगर बिछड़ना था 
ए वक़्त के मुसाफिर 
हम मिले ही क्यूँ 
जिन्हे कभी ना मिलना था

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