वक़्त के मुसाफिर
एक दूजे से अंजान
बस एक ही मुस्कान
फिर क्या
थोड़ी सी गुफ्तगू
थोड़ी सी हँसी
चाँद ख्वाहिशें
थोड़ी सी आरज़ू
भूल कर सारी दुनिया कहाँ खो गये
कुछ ही लम्हों में सच्चे यार हो गये
एक दूजे से अंजान थे जो पहले
इस छोटे से सफ़र में सांझेदार हो गये
क्यूँ लगता है मुझे अपनी कहानी मिलती है
जैसे रास्ते हो अलग लेकिन मंज़िल एक ही है
क्या आईना है तू मेरी दास्तान का?
या है तुझसे मेरा कोई वास्ता सा?
शायद खुदा ने भेजा था तुझे
मेरी तक़दीर बनाकर
जिसमें पढ़ सकता अपनी कहानी
ऐसी तस्वीर बनाकर
मूक़दर ने जिन्हे मिलवाया
और वक़्त ने संत निभाया
हमें मिलना ही था
ए वक़्त के मुसाफिर
वरना यूँ ना मिलते हम
जिन्हे कभी ना मिलना था
जल्द ही आएगी मंज़िल तेरी
मुझे तो अभी दूर जाना है
ज़िंदगी की अंजान राहों पर चलते जाना है
और कैसे भुला दूं में,
तू फारिसता है तो क्या
पास नही तू मेरे
सांत नही तू मेरे
ज़िंदगी के इस सफ़र में
में अकेला हूँ और अकेला था
पर सोचता हूँ आज भी कभी,
हम मिले ही क्यूँ
फिर अगर बिछड़ना था
ए वक़्त के मुसाफिर
हम मिले ही क्यूँ
जिन्हे कभी ना मिलना था
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