Monday, April 7, 2014

Phir Ye Sanjh

आज फिर ये साँझ
एक चादर ओढ़ आयी

जिसकी हलकी छाव में
छुप गए हम तुम

आसमा देखो
ललचा रहा जैसे

वक़्त देखो
इतरा रहा जैसे

चुपके से
हो गयी रात

जिसका बहाना लिए
चले गए तुम

और छोड़ गए हमें
तनहा अकेले

उस चाँद की
रौशनी में

जो खुद तुमसे
शीतलता चुराता है

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