Friday, December 6, 2013

Bambai ki life

ये बंबई की लाइफ भी ना साहेब
और में छोटे शहर का

समझ नही पाता
क्यूँ भागना है
क्यूँ जागना है
जेब भरती नही
भूक मिटती नही

ये बंबई की लाइफ भी ना साहेब
और में छोटे शहर का

रुक जाता हूँ
थम जाता हूँ
मायूस हो कर कभी
ठहर जाता हूँ
रास्ते अजीब लगते हें
दोस्त यहाँ, दोस्त कहाँ लगते हें

ये बंबई की लाइफ भी ना साहेब
और में छोटे शहर का

याद आता है गाँव का वो चौराहा
चबूतरा, जहाँ ठंडी रात में
अँगारे जला कर
ख़ुशियाँ बाटा करते थे
कभी झील किनारे
पानी में गोते लगाया करते थे

ये बंबई की लाइफ भी ना साहेब
और में छोटे शहर का

इस भीड़ में यूँ तन्हा सा लगता है
वक़्त भी यहाँ अंजाना सा लगता है
हाथ से रेत की तरहा फिसलता कभी
कभी होने पर भी अधूरा सा लगता है

ये बंबई की लाइफ भी ना साहेब
और में छोटे शहर का

गर एक दिन में यूँ ही रुक गया
इत्मेनान से, ढलते सूरज को
समंदर किनारे देखने थम गया
ऐसा क्या था
जो इतनी भीड़ जमा थी
ये सोचते सोचते
भीड़ में जा खो गया
और उस दिन से
ये बंबई शहर भी
मेरा अपना हो गया
अब जब कभी गाँव की याद सताती है
ये बंबई की लाइफ भी ना साहेब
मुझे यहीं समंदर किनारे ले आती है

~ Dedicated to Auto Drives of Mumbai who are far from their home

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